भूमंडलीकरण एक व्यापक अवधारणा है। इससे हमारे सामने मानवता का व्यापक स्वरुप
उपस्थित होता दिखाई देता है और हम कहने लगते हैं कि हम एक ही पृथ्वी के पुत्र
हैं। हम सर्वव्यापी हैं और हमारी संस्कृति समान है। ऐसी सोच हमें आत्म
प्रवंचना की दुनिया में ले जा रही है। जब हम बारीकी से स्थिति का विश्लेषण
करते हैं तो लगता है कि भूमंडलीकरण की अवधारणा में स्वार्थो की टकराहट है और
क्रय-विक्रय की मण्डी में बोली लग रही है। विकसित देश, विकासशील देशों पर धन
तथा बल के आधार पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व स्थापित करने के लिए दादागिरी कर
रहे हैं और यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अब विश्व एक ग्राम है। अत:
लेन-देन तथा आर्थिक सहयोग से संघर्षो को टाला जा सकता है परन्तु यह छलावा है।
संघर्षो ने आतंकवाद, मजहबी उन्माद, प्रकृति का शोषण, परमाणु अस्त्र शस्त्रों
का भण्डारण, साम्राज्यवाद, यह सब वैश्वीकरण की देन हैं।
विज्ञान तथा तकनीक ने मिलकर अनेक देशों को विकासवाद के झूले पर झुलाकर परमाणु
पुरुषों का विस्तार तो किया है, परंतु अणु पुरुष विकसित नहीं हुए हैं। बाजार,
मण्डी तथा प्रतिस्पर्धाओं ने शिक्षा जगत को भी प्रभावित किया है। जीवन
मूल्यों, चरित्र निर्माण तथा व्यक्तित्व विकास की शिक्षा का पाठ्यचर्या तथा
पाठयक्रम में कोई स्थान नहीं है, शिक्षा की परिभाषा बौनी हो गई है। केवल
जानकारियों के ढेर को मस्तिष्क में ठूंसने का प्रयास हो रहा है जिसके
परिणामस्वरुप लक्ष्यविहीन युवा पीढ़ी स्वेच्छाचारी बनती जा रही है। आधुनिकता
के नाम पर पाश्चात्यीकरण का प्रभाव, वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन, मन-मस्तिष्क
को प्रदूषित करता जा रहा है। समान संस्कृति के नाम पर प्राचीन ज्ञान-विज्ञान
को भारत के पाठ्यपुस्तकों से बहिष्कृत कर दिया गया है। आधुनिकता के नाम पर
प्राचीन बुद्धिमत्ता से विछोह हो गया है और देश की धरती से संबंध विच्छेद कर
दिया गया है।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने विकासशील समाज का पाश्चात्यीकरण करने की भी कोशिश
की है। वैश्वीकरण की संरचनाएं अपने मूल्यों को इन समाजों पर लादने की कोशिश कर
रहे हैं जिनसे विकासशील समाज तालमेल नहीं बिठा पा रहा है। इसके बदले इन समाजों
में स्वयं के सांस्कृतिक मूल्यों का भी ह्रास हो रहा है। फलत: पुरूष एवं
महिलाओं के संबंध अब इन समाजों में भी विकृत हो रहे हैं। तलाक, समलैंगिक
विवाह, गर्भपात, एकल अभिभावक आदि घटनाएँ बढ़ रही हैं। इन सब से महिलाओं की
स्थिति और कमजोर हुर्इ है। पहले भारतीय समाज में बूढ़े माता-पिता एवं पत्नी की
देख-रेख की जिम्मेदारी पुरूषों की होती थी किंतु वैश्वीकरण के युग में इस तरह
के नैतिक बंधनों की ढिलार्इ से वे कर्तव्यविमुख होते जा रहे हैं।
भूमंडलीकरण के साथ एक नए समय का प्रवेश हुआ है। भारत एवं पश्चिमी देशों में
तरह-तरह के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं, जिनमें चुनौती और
चिंता के नए समीकरण सामने आए। संस्कृति की दृष्टि से भी यह समय चुनौतीपूर्ण,
अनिश्चित और पूर्व निर्धारित स्थापित ढाँचों के ध्वस्त होने का समय है। इस
विकेंद्रीकरण ने भाषा, साहित्य और समाज के सभी क्षेत्रें में हाशियाकृत
अस्मिताओं को केंद्र में ला खड़ा किया है। इस दृष्टि से, भूमंडलीकरण के कारण
पैदा होने वाली अनेक समस्याओं के रहते हुए भी उसमें संभावना के कुछ आलोक कण
प्रस्फुटित होते हैं। इन सभी बदलावों की वाहक नई तकनीक बनी। समाज में 20 साल
पहले मुट्ठी भर लोगों के पास कंप्यूटर थे। आज अधिकांश घरों में कंप्यूटर है और
मोबाइल एक चौथाई आबादी से अधिक लोगों के पास है। वैश्वीकरण के माहौल में दिखता
है कि दुनिया के देशों में परस्पर निर्भरता बढ़ रही है। लोगों की कनेक्टिविटी
बढ़ती जा रही है। इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि 'हम' और 'वे' का
सांस्कृतिक विभाजन कहीं कम हुआ है, दूसरे की संस्कृति को समझने की उदारता पैदा
हुई है और वैश्वीकरण ने 'विश्व मानवता' का वातावरण बनाया है।
भूमंडलीकरण की प्रकृति ऐसी है कि वह राष्ट्र को राष्ट्र नहीं रहने देना चाहता,
बल्कि सारी भौगोलिक सीमाएँ तोड़कर अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विलय करना
चाहता है। व्यक्ति को अपनी जड़ों से काटकर विश्व मानव में बदलने में विश्वास
रखता है। उसकी राष्ट्रीय चेतना समाप्त कर अंतरराष्ट्रीय चेतना में बदल देता
है। भूमंडलीकरण सूचना प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर राष्ट्र की सीमाओं का
उल्लंघन करता है, जिससे समय और दूरी का संकुचन होता है। इसके स्वभाव में
तीव्रगामिता है। इसी तीव्रता के कारण अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रवाह,
सांस्कृतिक प्रवाह और सामाजिक प्रवाह का निर्बाध आवागमन होता है। इसके लिए यह
उपभोक्ता की सर्वोच्चता, उदारीकरण और समरूपीकरण का भ्रामक विज्ञापन करता है।
वास्तव में इस विज्ञापन की आड़ में नव-उपनिवेशवाद का आक्रमण होता है, जिसके
कारण हमारी संस्कृति प्रभावित होती है।
हर देश तथा समाज की अपनी संस्कृति होती है। भारत की कोई एक संस्कृति नहीं है
भारत एक बहुसांस्कृतिक देश है, यहाँ हर राज्य तथा समाज की अपनी संस्कृति है और
यही संस्कृतियाँ एक होकर भारतीय संस्कृति को परिलक्षित करती है परंतु अब भारत
पर भूमंडलीकरण की संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में
दौड़ते हुए हम कब अपने परिवेश से कट गए, हमें पता ही नहीं चला। भूमंडलीकरण की
संकल्पना के कारण हमारे देश को पश्चिमीकरण, भौतिकतावाद और बाज़ारवाद ने घेर
लिया है तथा इनका प्रभाव भारतीय संस्कृति पर पड़ रहा है। भूमंडलीकरण की अंधी
दौड़ ने किस प्रकार भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया। पाश्चात्य संस्कृति के
मूल्यों को न स्वीकारते हुए हमने किस प्रकार उसकी अपसंस्कृति को अपनाया।
परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति बदलता हुआ दृष्टिकोण, युवा पीढ़ी पर
भूमंडलीकरण का प्रभाव, स्वहित, व्यक्तिनिष्ठ दृष्टि।
भूमंडलीकरण पारिवारिक संरचना को भी बदलता है। अतीत में संयुक्त परिवार का चलन
था। अब इसका स्थान एकाकी परिवार ने ले लिया है। हमारी खान-पान की आदतें,
त्योहार, समारोह भी काफी बदल गए हैं। जन्मदिन, महिला दिवस, मई दिवस समारोह,
फास्ट-फूड रेस्तरांओं की बढ़ती संख्या और कई अंतर्राष्टरीय त्योहार भूमंडलीकरण
के प्रतीक हैं। भूमंडलीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे पहनावे में देखा जा सकता
है। समुदायों के अपने संस्कार, परंपराए और मूल्य भी परिवर्तित हो रहे हैं।
भूमण्डलीकरण की संकल्पना के कारण देश को पश्चिमीकरण, भौतिकवाद और बाज़ारवाद
ने घेर लिया है तथा इनका प्रभाव संस्कृति पर पड़ा है। हर देश तथा समाज की
अपनी संस्कृति होती है और यही संस्कृति एक होकर भारतीय संस्कृति को
परिलक्षित करती है परंतु अब देश पर भूमण्डलीकृत संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा
है। भूमडलीकरण के दौरे में वर्चस्ववादी देशों की संस्कृति, बाजार हमारे समाज
पर हावी हो रहे है। यह भूमण्डलीकरण का ही प्रभाव है कि हमारे विचार तथा
संस्कृति अनूदित रूप में बाहर जा रहे हैं तथा बाहर के विचार व संस्कृति
अनूदित रूप में भारत आ रहे हैं। इस आदान-प्रदान का प्रमुख साधन भाषा तथा
अनुवाद ही है। अनुवाद देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाला एक महत्तर
भाषिक साधन है। विशेष रूप से यह एक औजार तथा उपकरण है जो भौगोलिक, आर्थिक,
सांस्कृतिक तथा सामाजिक विभेदों को स्थानीय तथा वैश्विक स्तर पर दूर कर
परस्पर संबंध स्थापित करता है। विश्व समाज भिन्न-भिन्न राष्ट्रों,
भूखण्डों, धर्मो, वर्णों, और जातियों में विभक्त है। हर राष्ट्र तथा समाज की
अपनी भाषिक तथा सांस्कृतिक पहचान होती है। भूमंडलीकरण का संस्कृति पर जो
प्रभाव पड़ा है, इससे मानव समुदाय को भावात्मक धरातल पर जोड़ कर उसके मध्य
बनी विषमता की खाई को पाटा जा सकता है।
भाषा का जन्म व्यक्तियों में आपसी विचार-विनिमय के प्रयास से हुआ तो अनुवाद का
जन्म दो भाषा-भाषी व्यक्तियों या समुदायों में विचार विनिमय संभव बनाने के लिए
हुआ। आज के आधुनिक युग में भूमंडलीकरण के कारण सारा विश्व सिमट-सा गया है और
सभी को एक-दूसरे से किसी न किसी कार्य के लिए संपर्क करना ही पड़ता है। हम सभी
को यह पता है कि जितनी जल्दी हम किसी तकनीक, विज्ञान या विषय को अपनी परिचित
भाषा अथवा अपनी भाषा में सीख सकते है, उतनी जल्दी हम किसी विदेशी अथवा अपरिचित
भाषा में नहीं सीख सकते। अनुवाद की सहायता से ही हमारे सम्मुख अपरिचित भाषाओं
का साहित्य हमारी भाषाओं में उपलब्ध हो पाता है। आधुनिक युग में विभिन्न
क्षेत्रों में प्रगति होने के कारण अनुवाद एक सामाजिक आवश्यकता बन गया है। आज
अनुवाद का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि वर्तमान शताब्दी को अनुवाद युग
कहा जाने लगा है।
एक भाषा की साहित्य संपदा को दूसरी भाषा में उसी क्षमता के साथ अभिव्यक्त करने
का उत्तरदायित्व अनुवादक के कंधों पर हमेशा से रहा है तथा अनुवादक इस कार्य को
पूरी ईमानदारी, निष्ठा तथा कुशलता के साथ संपन्न करते रहे हैं। अनुवाद ही
एकमात्र ऐसा जरिया है जिसके सहारे हम अन्य भाषाओं के समृद्ध साहित्य एवं ज्ञान
के भंडार तक पहुँच रहे हैं। इसके क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही है।
सूचना प्रौद्योगिकी से इसकी भूमिका का विस्तार हो गया है क्योंकि
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी अत्यंत आवश्यकता हो गयी है। अनुवाद केवल ज्ञान
ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को भी प्रभावित
करने की क्षमता रखता है। भूमंडलीकरण के परिदृश्य में अनुवाद न केवल साहित्य और
विश्व संस्कृति तक सीमित है बल्कि ज्ञान-विज्ञान, जनसंचार आदि विषयों में भी
इसकी उपयोगिता दिखाई देती है।
अनुवाद एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम किसी भी देश के परिवेशगत जीवन,
संस्कृति, साहित्य, चिंतन, विचारधारा आदि से भली-भांति परिचित हो सकते हैं। इस
दिशा में भारतीय और विश्व साहित्य की अनूदित कृतियाँ सामाजिक संस्कृति को
बढ़ावा दे रही हैं। विज्ञान के विकास के साथ-साथ सूचना का महत्व बढ़ा है।
विज्ञान के क्षेत्र में खोजों की जानकारी वैज्ञानिक तुरंत पाना चाहते हैं। इसे
अपनी भाषा में जानने के लिए अनुवादक की आवश्यकता होती है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में अनुवाद की प्रासंगिकता बढ़ गई है। अब अनुवाद सामान्य
कार्य न हो कर राष्ट्रीय अस्मिता एवं सेवा कार्य से जुड़ गया है। अनुवाद वह
सेतु है जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि,
तुलनात्मक अध्ययन, राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें व्यापक
साहित्य जगत से जोड़ता है। "जी. गोपीनाथन के शब्दों में कहा जाए तो भारत जैसे
बहुभाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयं सिद्ध है। भारत के विभिन्न
प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्वरूप को निखारने के लिए अनुवाद
ही एक मात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली
भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते
हैं।"
[1]
वर्तमान युग में शायद ही जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र हो, जिसमें अनुवाद की
उपादेयता प्रमाणिक न की जा सके। समय को देखते हुए आज यह आवश्यक हो गया है कि नए
संसाधनों के विकास और व्यापक मानवीय संबंधों के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद के
महत्व प्रासंगिकता एवं उसकी उपादेयता, सार्थकता पर विचार किया जाए। आज विश्व
संस्कृति को समझने और उसे करीब लाने में अनुवाद की भूमिका सर्वोपरि हो गयी है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में विविध भाषाओं, आचार-विचारों, संस्कृतियों आदि के बीच
तालमेल स्थापित करने के लिए अनुवाद ही सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सार्थक माध्यम बन
सकता है।
भाषा के वैश्वीकरण का एक मुख्य घटक अनुवाद है। आज भारत में ऐसा कोई राष्ट्रीय
संस्थान नहीं है जिसका प्रमुख दायित्व अनुवाद से न जुड़ा हो। भारत की भाषाओं की
प्रमुख कृतियों का योजनाबद्ध तरीके से विदेशी भाषाओं में अनुवाद होता है। किसी
समकालीन लेखक, कवि की कृति जो कि हिंदी या तमिल, तेलगु में है उसको विदेशी
भाषा में अनूदित किया जाता है। इसका संबंध कृतिकार की कृति से नहीं उसके
व्यक्तित्व से है। उसके संपर्क और समझौतों से है। अँग्रेजी भाषा में अनूदित
हिंदी कृतियों की सूची यदि आपकी निगाह में पड़ जाए तो बिना कुछ जाने आपको विदेशी
कृतियों का हिंदी में और हिंदी का विदेशी भाषाओं में अनुवाद की वास्तविक स्थिति
का पता चल जाएगा। यह बात केवल ललित साहित्य के अनुवाद की ही नहीं, ज्ञान
विज्ञान तथा शास्त्रों के अनुवाद की भी है। जो अनुवाद आपके सामने आते हैं कुछ
अनुवादों को छोड़ कर वे ऐसे अनुवाद हैं जिन्हें अनूदित कृति के बिना मूल को
समझा ही नहीं जा सकता। जहाँ लिखित साहित्य के अनुवाद का भूमंडलीकरण के
परिप्रेक्ष्य में महत्व है, वहीं तत्काल भाषांतरण का भी। इसकी स्थिति तो और भी
दयनीय है।
भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आदि दृष्टियों से हमारा देश बहुकोणीय
है। भारत का मानचित्र एक साथ कई धर्मों, संप्रदायों, जातियों, भाषाओं,
आचार-विचारों आदि के समन्वय से बना है। इस तस्वीर की पहचान में अनुवाद की
उपादेयता सर्वाधिक उल्लेखनीय है। सरकारी कार्यालयों के अतिरिक्त सार्वजनिक
क्षेत्र के प्रतिष्ठानों, निगमों, कंपनियों, बैंकों आदि को भी अपने प्रशासनिक
कार्यों में सरकारी भाषा नीति के पालन हेतु अनुवाद कार्य अनिवार्य हो गया है।
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच प्रशासनिक कार्यों के लिए भी अनुवाद कार्य की
ज़रूरत होती है। अहिंदी भाषी राज्यों के संदर्भ में अनुवाद कार्य की महत्ता और
भी बढ़ जाती है। भारत सरकार सरकारी कार्यालयों में हिंदी में कामकाज के
प्रोत्साहन हेतु करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। यह कार्य अनुवाद के बिना संभव
नहीं हो सकता।
आज विश्व संस्कृति को समझने तथा उसे करीब लाने में अनुवाद की भूमिका सर्वोपरि
है। विश्व साहित्य के अनूदित ग्रंथो ने इस कार्य को बहुत आसान बनाया है। इसके
अलावा आवागमन तथा सूचना तकनीकी के क्षेत्र में प्रगति के कारण लोगों का आपस
में मिलने-जुलने, बातचीत करने का सिलसिला व्यापक धरातल पर शुरू हो गया है।
इसमें भी व्याकरणिक स्तर पर विविध क्षेत्रों में अनुवाद का सहारा लिया गया। यह
प्रक्रिया आज भी जारी है। विश्व स्तर पर होने वाली नई नई खोजों एवं जानकारियों
को इंसान अपनी भाषा में जानना चाहता है। इसके लिए अनुवाद ही एकमात्र सहारा हो
सकता है। इससे भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद की सार्थकता अपने आप
स्वयंसिद्ध हो जाती है। अनुवाद स्वयं में एक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया है। यह
केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित न रहकर सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और इन
सबसे बढ़कर भावात्मक स्तर पर एकीकरण की प्रक्रिया है। किसी भी विदेशी भाषा तथा
अपरिचित भाषा, उसमें रचित ज्ञान- भंडार का अनुशीलन परिशीलन अनुवाद के बिना
संभव नहीं हो पाता है।
"भूमंडलीकरण में विश्व बाज़ार को एक ही क्षेत्र में देखने का भाव निहित है
किन्तु जहाँ विभिन्न राष्ट्रीय क्षेत्रीय भाषाएँ इसके मार्ग में बाधा पहुँचाती
है। वहाँ अनुवाद विभिन्न भाषाओं के बीच सेतु की भूमिका निभाते हुए भाषाई
दीवारों को ध्वस्त करता चलता है। अगर भूमंडलीकरण, व्यापार के लिए देश काल की
दूरियों को मिटाने की युक्ति है तो अनुवाद उसे मूर्त रूप प्रदान करने का साधन।
वैश्विक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, प्रादेशिक आदि विभिन्न स्तरों पर समाजों में
परिव्याप्त भाषा संबंधी भेद के बावजूद परस्पर संवाद का समाधान अनुवाद है।
अनुवाद मनुष्य की बौद्धिक एवं भाषिक यात्रा का वाहक बनते हुए देश काल की दूरी
को मिटाकर आर्थिक कार्यकलापों सहित अनुभवों एवं ज्ञान विज्ञान को अन्य भाषा
संस्कृति के हाथों में सौप देता है।"
[2]
सामाजिक-सांस्कृतिक, वैचारिक अथवा राजनीतिक परिवर्तन लाने में अनुवाद की भूमिका
सदैव महत्वपूर्ण रही है। किंतु आज के बढ़ते भूमंडलीकरण के दौर में तो यह
अनिवार्य-अपरिहार्य हो गया है। भूमंडलीकरण से आत्मीय संबंध स्थापित करने में
अनुवाद सार्थक भूमिका निभा रहा है। 'विश्वग्राम' की परिकल्पना को साकार करने
में अनुवाद सार्थक भूमिका निभा रहा है। संपूर्ण वसुधा को एक कुटुंब बनाने के
प्रति समर्पित अनुवादक इतर भाषाओं में अंतरंग संबंध स्थापित करते हुए अनुवाद
के माध्यम से संवाद का आधार तैयार करता है। भाषा के विकास की दृष्टि से अनुवाद
की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, इसलिए भूमंडलीकरण के कारण हिन्दी और अनुवाद
प्रभावित हो रहे हैं। अनुवाद मानव समाज को वास्तव में एक करने का कारगर उपकरण
है और भूमंडलीकरण की अवधारणा में भले ही आर्थिक संदर्भों में ही सही, लेकिन
मानव समाज की एकता का भाव निहित है। आज भारत वैश्वीकरण की विडम्बनाओं के सबसे
दिलचस्प मोड़ पर खड़ा है। यह विडंबना दोतरफा है, कुछ निश्चित भाषाओं एवं
संस्कृतियों का प्रचार-प्रसार हो रहा है तो कुछ भाषाएं एवं संस्कृतियों का या
तो क्षरण हो रहा है या क्षरण होने का खतरा है। इन प्रक्रियाओं का अध्ययन
सामान्यतः संस्कृतियों की राजनीति, उत्पादन एवं विनिर्माणीकरण के रूप में किया
जा रहा है। इसमें अनुवाद अपनी भूमिका निभाता आया है और भविष्य में भी निभाएगा।
[1]
मिश्र, डॉ॰ रवीन्द्र- अनुवाद की सार्थकता, अनुवाद पत्रिका, अंक-125,
पृ॰15-16
[2]
सेठी, डॉ॰ हरीश कुमार. अनुवाद पत्रिका, अंक-125, पृ॰ 29